जितनी भी शक़्कर

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satindar
जितनी  भी    शक़्कर    थी    इस    बदन    में,
उसके  शक्करपारे    तो  बचपन     खा  गया।
अब      कड़वाहट      बची     है     जवानी    में,
उसपे  लोग   कहते   हैं पागल चिड़चिड़ा  गया।
जी-जान  लगा  दी  नाम   को   दस्तख़त   बनाने  में,
कम्बख़त  ज़माना  बदल   के  अगूँठे   पे  आ  गया।
इक   बरसात   लग   जाती   है   नया   जामुन   आने  में,
इस   आँगन के पेड़   की   मैं   कई  बरसातें  खा  गया।
बेर   की  गुठलियाँ   भर   के   चलाई   गुलेल   हमने,
जानें  कौन-सा  राम  का  प्यारा  मेरी  गुलेल  चुरा  गया।
झूले    की    चाह    में    बहुत    पिटा   हूँ    मेले    में,
मुफ़लिसी  तूने    बाप से  बेटे    को    पिटवा दिया।
पास  होने    के   लालच  में   बहुत   अरदासें  कीं,
इन    इम्तिहानों    ने    मुझे  इबादती   बना   दिया।
बस  ऐसे  ही   इक   दिन   पहना   था  जूता  बाप  का,
ज़िन्दगी  तूने  तो  ज़िम्मेदारी  से  मेरा कांधा झुका दिया।
वैसे  राम से कभी अपना  मिलना   नहीं  हुआ  यूँ  तो,
पर  सुना  है राम  की जुदाई  ने  दशरथ  को रुला  दिया।
दोस्तों   की   मत   पूछना   सबके-सब   साँप  है,
डस-डस  के  सतिन्दर  को  ज़हरीला   बना  दिया॥
         #सतिंदर सिंह
परिचय : सतिंदर सिंह का जन्म २९ जुलाई १९८५ का है। एम.कॉम. की शिक्षा प्राप्त की है,और शिक्षक हैं। आप उत्तर प्रदेश के ललितपुर में रहते हैं। लिखना आपका शौक है।

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