छीन रहे बचपन,भारी होते बस्ते…

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devendr soni
वर्तमान में बच्चों के भारी होते बस्तों से सभी त्रस्त हैं, लेकिन प्रतिस्पर्धा और सबसे आगे रहने की चाह में खुलकर कोई भी इसका विरोध नहीं करता हैl न ही खुद से कोई पहल ही करता है,क्योंकि बदले समय के लिहाज से अब यह आवश्यक लगता है।
डिजिटल युग में आज बच्चों की मनोवृत्ति भी बदल गई है। परिस्थितिवश खेलकूद और अन्य गतिविधियों से उनका मोह भंग हो गया है। मैदानी अभिरुचि का स्थान किताबों और यांत्रिकता ने ले लिया है। मोबाइल और कम्प्यूटर भी आधुनिक शिक्षा के पर्याय बनते जा रहे हैं। सामान्य या विषयगत शिक्षण के अलावा इन विषयों की पुस्तकों का बोझ भी बढ़ा ही है। नर्सरी और घर में भी मिल रहे इस ज्ञान का ही प्रतिफल है कि,आज दो-तीन साल का बच्चा भी आप-हम से ज्यादा अच्छे से मोबाइल को संचालित करता है। उसे मोबाईल के खेल भाते हैं। इसे देख हम भी हर्षित तो होते ही हैं,और जब-तब दूसरों के सामने इसका गुणगान भी करते रहते हैं। यही प्रशंसा उन्हें अन्य गतिविधियों और मैदानी खेलकूद से दूर करती है।
शहरों में जब रहने के ठिकाने ही छोटे हो गए हों,तो आसपास खेल की सुविधाओं की बात करना भी बेमानी ही है,जिससे बच्चे घर में ही कैद से हो गए हैं। अलावा इसके एक बड़ा कारण निरन्तर घटित हो रही असामाजिक गतिविधियां भी हैं,जिसने सबको अपने बच्चों के प्रति इतना सजग या भयभीत कर दिया है कि वे उसे अकेले बाहर जाने ही नहीं देते हैं। ऐसे में बच्चे सीमित दायरे में कैद हो गए हैं। घर से विद्यालय और विद्यालय से घर ही उनकी दिनचर्या हो गई है। रही-सही कसर कोचिंग कक्षाओं ने पूरी कर दी है। अवल्लता या भय ने उन्हें ग्रसित कर मानसिक रूप से कमजोर बना दिया है,जो चिन्ताजनक है।
शालाओं की बात करें,तो हम अपने बच्चों के लिए अधिकतर निजी 
शालाओं को ही पसंद करते हैं,जिन्हें केवल अपना व्यवसाय चलाना होता है। यहां का अलग-अलग पाठ्यक्रम और बढ़ती किताबें भी बस्तों का बोझ बढ़ाती हैं। इन शालाओं में अन्य गतिविधियां होती जरूर हैं,पर वे भी नफा-नुकसान पर ही आधारित होती हैं।
सरकारी विद्यालयों में अध्यापक पढ़ाई के अलावा अन्य सरकरी फरमानों की पूर्तियाँ करे,या बच्चों के व्यक्तित्व विकास पर ध्यान दे। फिर भी खाना-पूर्ति के लिए आयोजन तो होते ही हैं, पर यहां सीमित और स्वैच्छिक रूचि के बच्चे ही शामिल हो पाते हैं। अलावा इनके और भी अनेक कारण हैं,जो बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं,केवल भारी होते बस्ते ही नहीं।
यदि बचपन बचाना है,तो मेरा स्प्ष्ट मानना है कि जब तक देशभर में कानूनन समान रूप से शिक्षा के लिए न्यूनतम उम्र ४ वर्ष नहीं होगी,और ये नर्सरी,के.जी. कक्षा समाप्त नहीं होगी,तब तक बच्चों पर बस्ते से ज्यादा मानसिक बोझ रहेगा। बस्ते का बोझ तो अधिकतर रिक्शेवाला या बसवाला उठा ही लेता है,पर मानसिक बोझ तो उन्हें ही उठाना पड़ता है। अलावा इसके हम सबको छोटे बच्चों को मोबाईल में पारंगत करने के स्थान पर घर में ही खेले जाने वाले खेलों को वरीयता से सिखाना होगा। उनका रुझान इस ओर विकसित करना होगा। यह हम पर ही निर्भर करता है कि,हम बस्ते के बोझ का रोना रोएँ या कोई सकारात्मक पहल खुद से शुरू करें। विकास के युग में बस्ते का बोझ यदि आवश्यक है तो यह भी जरूरी है कि,बच्चों की मानसिकता पर इसका असर न होने पाए। इसका ध्यान तो सबको रखना ही होगाl 

                                                               #देवेन्द्र सोनी

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