परिचय: ओमप्रकाश अग्रवाल का साहित्यिक उपनाम ‘बबुआ’ है। मूल तो राजस्थान का झूंझनू जिला और मारवाड़ी वैश्य हैं,परन्तु लगभग ७० वर्षों पूर्व परिवार यू़.पी. के प्रतापगढ़ जिले में आकर बस गया था। आपका जन्म १९६२ में प्रतापगढ़ में और शिक्षा दीक्षा-बी.कॉम. भी वहीं हुई। वर्तमान में मुंबई में स्थाई रूप से सपरिवार निवासरत हैं। संस्कार,परंपरा,नैतिक और मानवीय मूल्यों के प्रति सजग व आस्थावान तथा देश धरा से अपने प्राणों से ज्यादा प्यार है। ४० वर्षों से लिख रहे हैं। लगभग सभी विधाओं(गीत,ग़ज़ल,दोहा,चौपाई, छंद आदि)में लिखते हैं,परन्तु काव्य सृजन के साहित्यिक व्याकरण की न कभी औपचारिक शिक्षा ली,न ही मात्रा विधान आदि का तकनीकी ज्ञान है।काव्य आपका शौक है,पेशा नहीं,इसलिए यदा-कदा ही कवि मित्रों के विशेष अनुरोध पर मंचों पर जाते हैं। लगभग २००० से अधिक रचनाएं लिखी होंगी,जिसमें से लगभग ७०० के करीब का शीघ्र ही पाँच खण्डों मे प्रकाशन होगा। स्थानीय स्तर पर ढेरों बार सम्मानित और पुरस्कृत होते रहे हैं।आजीविका की दृष्टि से बैंगलोर की निजी बड़ी कम्पनी में विपणन प्रबंधक (वरिष्ठ) के पद पर कार्यरत हैं।
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दृग तुम्हारे नेह का दर्पण अगर तकने लगे,
और उर में स्नेह की ज्वाला अगर जलने लगे।
जब उमंगों की घटाएं मेघ बन छाने लगे,
एकांत के वो मौन भी जब रास यूँ आने लगे॥
चाह जब होने लगे यूँ चँद्रमुख श्रृंगार की,
रिक्त-सी लगने लगेगी जब ये गागर प्यार की।
दिल में खुशबू फूल की सी गर तुम्हें आने लगे,
रोम तेरे प्यार का गर गीत-सा गाने लगे॥
जब तिमिर तन्हाईयों के रास आते लग रहे हों,
और तनहा रात में भी नेत्र तेरे जग रहे हों।
प्यास-सी लगने लगे जब देख सरिता नीर को,
मन प्रफुल्लित-सा लगे जब देखती हो क्षीर को॥
प्यास में न प्यास हो,फिर भूख भी मरने लगे,
गर अपरिचित हादसों से मन अगर डरने लगे।
तब समझना है ये बेला जिंदगी के सार की,
सिंधुमन मझधार में है एक कश्ती प्यार की॥
#ओम अग्रवाल ‘बबुआ’