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रहे पल्लवित-पुष्पित यह,
राष्ट्र जीवन की फुलवारी।
विविध प्रान्त हैं सुमन मनोहर,
खुशबू है सबकी न्यारी॥
भाषाएँ कई रम्य मनोरम,
बोलियाँ कई यहाँ अनुपम।
छह रितुएँ धर्म सात संग,
है कहीं नहीं ऐसा दम-खम॥
फूटी सभ्यता किरण यहीं,
जगे हम फिर जगत जागा।
धर्म ज्ञान विज्ञान कला में,
नित बढ़ते रहे बिना नागा॥
ज्योतिष आयुर्वेद वाणिज्य,
थे इसमें भी ऩिपुण नितान्त।
विश्वगुरू जगत श्रेष्ठ रहे हम,
कई सदियों तक निर्भ्रान्त॥
आती रही आपदाएं पर,
निकला राष्ट्र उन्हें सब चीर।
समय साक्षी है हुए यहाँ,
हरदम ही अद्भुत वीर॥
आस और विश्वास हमें है,
भारत आगे बढ़ता जाएगा।
कीर्ति धवल-नवल कर कुछ,
उत्कर्ष नया दिखलाएगा॥
पल्लवित-पुष्पित सतत रहे,
इस राष्ट्र विटप की हर डाली।
हो भारत भूमि कभी न आरत,
है विनय यही जग के माली॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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