
आज उनकी याद अनायास ही नहीं आई, दरअसल आज एक नन्हा सा पपी लगभग उसी शक्ल-सूरत का मुझे दिखाई दिया तो ध्यान बरबस ही अतीत में चला गया। अभी कुल 6 साल ही तो बीते हैं, यही महीना था दिसंबर का। चारों तरफ घना कुहरा था। लोग अपने-अपने घरों में रजाई में दुबके थे या फिर अलाव जलाकर सर्दी से राहत पाने का प्रयास कर रहे थे। इसी कड़कड़ाती ठंड में मुझे ऐसा दृश्य दिखाई दिया कि मैं चाह कर भी उसे अनदेखा न कर सकी।
घर से थोड़ी दूर पर दो छोटे-छोटे पपी ठंड से ठिठुरते, कूं कूं करते इधर-उधर भटक रहे थे। अभी महीने भर के भी नहीं रहे होंगे और इतनी मासूम उम्र में मां से बिछड़ गए थे। मैंने उन्हें देखा तो देर तक निहारती रह गई। कितनी सुंदर आंखें थीं काली और चमकदार। रंग एक का पूरा काला था तो दूसरे का काला-सफेद मिश्रित। इनके रंग-रूप किसी को भी आकर्षित करने की क्षमता रखते थे। मैं थोड़ा नजदीक गई तो वह दूर भागने लगे, शायद डर रहे होंगे। डरें भी क्यों न, बहुत से ऐसे इंसान होते हैं जो बेवजह इन मासूम बेजुबानों को परेशान करते रहते हैं। इसके बाद वे दोनों रोज ही दिखाई देने लगे। धीरे-धीरे चार-पांच दिनों में वह मेरे करीब आने लगे और अब इसमें कोई संदेह न था कि वह मुझे अपना भरोसेमंद दोस्त समझ रहे थे।
घरवालों के हल्के विरोध के बावजूद मैंने उन्हें घर में रख लिया। उन्हें खिला-पिला कर सोने के लिए पुराने छोटे से कमरे में रख दिया। कुछ पुराने दरी-कंबल उनके बिस्तर हो गए। फिर तो मेरी दिनचर्या ही बदल गई, सुबह उठने पर उनके साथ खेलना, उन्हें खाना खिलाना सब समय पर होने लगा। न जाने क्यों मुझे इन सब में एक अलग सी खुशी और संतुष्टि का एहसास होता था। फिर कुछ समय बाद हमने उनका नाम रखा- शेरू और वीरू। शेरू थोड़े शांत स्वभाव का था जबकि वीरू बहुत शरारती। दोनों की दोस्ती इतनी प्रगाढ़ थी कि साथ ही खाते-पीते, खेलते और सोते। दोनों कुछ ही दिनों में हमारे घर के सबके दुलारे बन चुके थे।
सर्दी की छुट्टियां बीत चुकी थीं। स्कूल से घर लौटने पर वे बेसब्री से इंतज़ार करते मिलते। आते ही दौड़ कर कंधे के ऊपर तक चढ़ जाते और प्यार जताते ! उनके साथ कुछ समय बिता लेने के बाद ऐसा लगता मानो मैं दुनिया का सबसे सुखी इंसान हूं। लेकिन हर बार की तरह नियति ने एक बार फिर से मेरे साथ छलावा किया। वो मनहूस दिन में कैसे भूल सकती हूं जब वो भयानक हादसा हुआ और हमारी हंसती-खेलती ज़िंदगी में दुःखों के घने बादलों ने डेरा जमा लिया।
उस दिन घर पर हम बच्चों के अलावा कोई भी नहीं था, अचानक न जाने कहां से एक पागल कुत्ता आया और उसने आव देखा न ताव सीधे वीरू के ऊपर हमला बोल दिया। गलती से शेरू उस दिन कमरे के अंदर बंद था। वह अंदर से ही पूरी ताकत लगाकर भौंकता रहा। इसके अलावा कर ही क्या सकता था बेचारा! इससे पहले कि हम उसे बचा पाते उस पागल कुत्ते ने वीरू की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी थी। मेरी आंखों के आंसू अविरल घंटों बहते रहे। बार-बार मन में ख़याल आता कि कितनी बेबस थी कि अपनी लाख कोशिशों के बाद भी उसे न बचा सकी। पश्चाताप की यह आग बरसों तक मुझे जलाती रही।
वीरू की मौत ने शेरू को एकदम बदल डाला, न कुछ खाता न पीता। इसका नतीजा यह हुआ कि वह दिनों दिन कमजोर होने लगा। हमारी लाख कोशिशों के बावजूद न तो उसने खाना-पीना शुरू किया, न ही हम उसमें जीने की इच्छा जगा पाए। मौत का सदमा होता भी तो सबसे भयावह है! शेरू अब दिन भर घर से गायब रहने लगा। एक दिन पता चला कि वह पूरे दिन उसी जगह जाकर बैठा रहता था, जहां वीरू का अंतिम संस्कार किया गया था। हफ़्ता भर भी न बीता हुआ होगा कि एक दिन शेरू लापता हो गया। सुबह घर से निकला और फिर कभी वापस नहीं आया। दो-तीन दिन बाद घर से काफ़ी दूर एक सुनसान सी जगह पर शेरू की लाश मिली।
#प्रीति खरवार
गाज़ियाबाद, उत्तरप्रदेश