डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़ के प्रमुख पर्व में शामिल संझा पर्व श्राद्ध में भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से मनाया जाता है। कुँआरी बालिकाएँ घर के बाहर दीवार पर संझा की आकृति बनाकर उनके गीत गाती हैं, इसके बाद पूजा अर्चना कर बालिकाएँ घर–घर जाकर यह गीत लोगों को भी सुनाती हैं। फिर प्रसाद वितरण किया जाता है। कहा जाता है कि पूर्णिमा के दिन संझा बई अपने मायके आती है।
पौराणिक कथाओं के आधार पर “संजा पर्व” का महत्त्व भगवान शिव और माता पार्वती से है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव को वर रूप में पाने के लिए माता पार्वती ने इस ‘संजा’ को प्रतिष्ठित किया था।
निमाड़- मालवा में प्रतिदिन शाम में घर के बाहर दीवार पर गोबर से लीपकर, फिर गोबर से ही आकृति बनाई जाती है। हर दिन अलग–अलग आकृति बनाई जाती है। सूर्यास्त से पहले संजा बना ली जाती है। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में यह पर्व अन्य नामों से प्रचलित है।
सोलह श्राद्ध में मनाये जाना वाला पर्व भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू होता है। पूर्णिमा को संजा बई अपने मायके में आती हैं। किशोरी बालाएँ सोलह दिन इस पर्व को बड़े चाव से मनाती हैं।
श्राद्ध पक्ष में मनाते है संझा
16 दिवसीय श्राद्धपक्ष के दौरान पाटला पूनम (पूर्णिमा) से संझाबाई का भी पूजन शुरू हो जाता है। शहर सहित अँचलों में संझाबाई का पर्व उल्लास के साथ मनाया जाता है। वैसे तो अधिकांश स्थानों पर बाज़ार में मिलने वाले संझाबाई के पेपर को दीवार पर चिपकाकर उसकी आरती की जाती है, लेकिन शहर सहित ग्रामीण अँचलों में कई लोग ऐसे भी हैं जो आज भी प्राचीन परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।
युवतियों सहित छोटी-छोटी बालिकाओं द्वारा श्राद्धपक्ष के पहले दिन से ही दीवार पर गोबर और फूलों की मदद से संझाबाई बनाकर उसका पूजन किया जाता है। रात होते ही बालिकाएँ एकत्रित होकर संझाबाई के मालवी भाषा में प्रचलित गीत गाती हैं। क्षेत्र की महिलाएँ भी इस कार्य में बालिकाओं के साथ रहती हैं। महिलाओं ने बताया कि पुरानी पंरपरा से नई पीढ़ी अवगत हो इसके चलते गोबर की संझा का निर्माण किया गया। श्राद्धपक्ष के पहले 10 दिनों में प्रतिदिन के हिसाब से गोबर की अलग-अलग आकृतियाँ संझाबाई पर बनाई गईं। इसके बाद 11 वें दिन किलाकोट का निर्माण करते हुए 10 दिन तक बनाई गई सभी आकृतियों को एक साथ संझाबाई में बनाया गया। सर्वपितृमोक्ष अमावस्या पर संझाबाई का पर्व संपन्न होगा। इसके बाद संझाबाई को दीवार से निकालकर जलस्रोतों में प्रवाहित किया जाएगा।
मालवी की सुप्रसिद्ध कवयित्री माया बदेका जी कहती हैं-
एक अनुमान था पंडित हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का कि कहीं सांझी या संझा का सम्बंध ब्रह्मा की कन्या संध्या से तो नहीं और इसलिए यह संध्या की बेला में मनाई जाती है। संझा की सोलह पारम्परिक आकृति गोबर से बनती हैं। उन आकृतियों को फूल पत्ती से सजाया जाता है। गुलाब, कनेर और अन्य फूल तो होते ही हैं,पर विशेषतः गुलदाउदी के फूलो से संझा को सजाया जाता है। फिर सभी सहेलियाँ एकत्रित होकर आरती और प्रसाद की तैयारी करती हैं। आरती का समवेत स्वर बहुत कर्णप्रिय होता है।
संझा की आरती
पेली आरती रय रमझोर रय रमझोर।
फिर संझा के गीत-
छोटी सी गाड़ी रड़कती जाय,रडकती जाय।
नानी सी गाड़ी रड़कती जाय,रड़कती जाय।
जिमे बैठया संजा बई,संजा बई।
घाघरो घमकाता जाय,चूडलो चमकाता जाय, चूंदड़ी चलकाता जाय,बईजी की नथनी झोला खाय।
देखो ब पियर जाये।
इसी तरह सोलह दिन अलग–अलग गीत।
संझा पर गाए जाने वाले गीत…..
‘संझा बाई का लाड़ाजी,
लूगड़ो लाया जाड़ाजी
असो कई लाया दारिका,
लाता गोट किनारी का। ‘
‘ संझा तू थारा घर जा कि थारी बई
मारेगी कि कूटेगी, चांद गयो गुजरात, हरणी का बड़ा बड़ा दांत, कि छोरा-छोरी डरपेगा भई डरपेगा ।’
संझा बाई को ससुराल जाने का संदेश देते हुए ये गीत गाया जाता है:
‘छोटी-सी गाड़ी लुढ़कती जाय,
जिसमें बैठी संझा बाई सासरे जाय, घाघरो घमकाती जाय, लूगड़ी लटकाती जाय, बिछिया बजाती जाय’ ।
‘म्हारा आकड़ा सुनार, म्हारा बाकड़ा सुनार।
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