लघुकथा – धारदार क़लम

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       दिमाग़ खालीपन का शिकार हो चला था। कुछ दिन से  कोई भी आइडिया काम नहीं कर रहा था। बाल मज़दूरी, भुखमरी, शहर के हर चौराहे की रेड लाईट पर करतब दिखाकर भीख मांगती गंदी-गंदी बच्चियाँ, कन्या-भ्रूण हत्या, स्टेशन पर शताब्दी के रुकने पर अपटूडेट मुसाफ़िरों द्वारा छोड़ी गयी जूठन पर टूटते  गरीब बच्चे, नेताओं के रंग बदलते वक्तव्य, शहर की दमघोटूं हवा, जगह-जगह खाकी  की  रिश्वतखोरी का नंगापन, सरकारी कर्मचारियों की बेशर्म हरामखोरी, यहाँ तक कि मीडिया के भी अपने-अपने राजनैतिक जुड़ाव को जायज़ ठहराती ख़बरें।
       चारों ओर बिखरा हुआ इतना सारा कच्चा माल होते हुए भी कोई विचार दिमाग़ को क्लिक नहीं कर पा रहा था कि उस पर कोई ऐसी दमदार कविता या कहानी लिख दी जाये कि उसे पढ़ते या सुनते हुए हर कोई कह उठे, “भई वा! क्या लिखा है, मज़ा आ गया।”
        ये सब हालात तो इस देश की जन्मजात धरोहरें हैं और पुरानी हैं, जो थोड़े बहुत फेरबदल के साथ आज़ादी के पहले से चलती आई हैं और आगे भी चलती रहेंगी। कितने लोगों ने इन बातों को कितनी-कितनी बार, अपने-अपने ढंग से लिखा और अपनी-अपनी महफ़िलें  जमाकर अपनी क़लम पर तारीफ़ें हासिल की ।
       साला कुछ नया दिखे या दिमाग़ को भाये तो उस पर कुछ नया लिखा जाये और अपने लोगों के बीच नए सिरे से महफ़िल की वाह-वाही भी लूटी जाए।
     उनकी क़लम चिंतित हुई कि अगर  कोई धाकड़ अनहोनी नसीब नहीं हुई और उसका सूनापन लम्बा खिंच गया  तो महफ़िल के बाज़ार में लोग उसे  भूलने में  देर नहीं लगायेंगे।
      अचानक उन्हें ख़बर मिली कि एक  रिवाज़ चला है, ‘लिव-इन का या गे-फे का’, उस पर क़लम चले तो वो कुछ जानदार हो सकती है। पर कयामत ये हुई कि  उसे भी भाई लोगों ने इस कदर लपका कि आनन-फानन में सैंकड़ो क़लमकार इस विषय के भी एक्सपर्ट हो गये।
       कुछ समझ नहीं आ रहा था कि  अब किस टॉपिक को पकड़ा जाये, जिसमें कुछ ताज़गी  हो, समस्या के साथ-साथ सनसनी और रोमांच  भी हो। सोचना जारी था पर हल कोई नहीं मिल रहा था। निराश मन ने कहा कि अगर आइडिया का यही टोटा रहा तो अपनी क़लम का मार्केट से गायब होना तय समझो।
       कुछ नये किस्म की अनहोनी हो तभी तो कोई आइडिया बने। लगता है लोग कुछ नया कर ही नहीं रहे या करना ही नहीं चाहते। दकियानूसी समाज में, ये क़लमकारी वाला विचार अब छोड़ना ही पड़ेगा।
     अपनी उधेड़बुन में निराशा के जंगल में खोने को ही थे कि अख़बार के एक कोने में छपी छोटी-सी ख़बर पर उनकी नज़र अटक गयी। उन्होनें अनमने अंदाज़ में ख़बर पढ़ी, लिखा था, “देश के कुछ हिस्सों में युवा-गरीब औरतें अपनी कोख को निकलवा कर उससे छुट्टी ले रही हैं।” आगे लिखा था, पत्रकार ने जब गहराई से इस तथ्य के गंदले पक्ष की जानकारी जुटाई तो पता लगा कि कोख होती है तो ठेकेदार द्वारा गर्भित होने का खतरा हमेशा बना रहता है और गर्भ धारण के बाद या तो वे काम पर जा नहीं पातीं और हिम्मत करके चली भी जाती हैं तो ठेकेदार उन्हें काम से हटा देता है। बिना काम के भूखे मरने की नौबत आ जाती है । इसलिये वे अपनी कोख को निकलवा देती हैं, जिससे हर दिन काम पाने में कोई मजबूरी आड़े नहीं आती।”
      ख़बर पढ़ते ही उनके दिमाग़ की हर नस में ख़ून अपनी पूरी गति से दौड़ने लगा। उन्हें समाज के एक तबके  की एक नई और तल्ख मजबूरी हाथ लग गयी।
      उनका दिमाग़ घर्राने लगा कि उन औरतों की इस मजबूरी को अपनी नई रचना के दर्दनाक प्लॉट में कुछ इस तरह बदला जाये कि स्टोरी की हर पंक्ति अपने आप में मजबूर औरत की मजबूरी के दर्द से सनी चीख़ में बदल जाए और लोग कहें कि, “वाह! क्या लिखा है।” फिर तो महफ़िल के बाद शराब भी होगी और क्या पता महफ़िल  रंगदार हुई तो शबाब भी नसीब हो जाए।
   उनके दिमाग़ की नसों ने कहा, “लिखो, ज़रूर लिखो, विषय बिलकुल नया है, नए किस्म के दर्द से भरपूर है। कोई न कोई पुरुस्कार भी ले ही मरेगी।”
   वे अपनी क़लम को धारदार बनाने में जुट गए।
                         
                           
#सुरेंद्र कुमार अरोड़ा साहिबाबाद (उ. प्र)

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