शोभायात्रा में चलता आम आदमी

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आमआदमी के लिए कुछ मौके बहुत खास होते हैं एक तो होली का जलूस और दूसरा कोई शोभायात्रा । होली के जुलूस में आम आदमी अपने फटेपुराने कपड़ों को पहनकर सड़कों पर ऐसे नाचता चलता है मानो उसके बगैर होली का यह जुलूस अधूरा ही रहा आता । कैसे भी बजते ढोलों की थाप पर वह बगैर कुछ देख्ेा अपने हाथा पांवों को चारो दिशाओं में फेंकता रहता है और चेहरे पर विभिन्न किस्म के भाव बनाता हुआ तथाकथत नृत्य टाइप का करता रहता है । उसके सारे शरीर में होली चढ़ चुकी होती है । वह भारी भीड़ को देखकर अपने ही हाथों से अपने फटे कपड़े फाड़ देने का प्रयास करता हुआ अजीब-अजीब सी हरकतें करता है । वी भीड़ में अपने को अलग दिखाने का प्रयास करता है । यह उसके होली में नाचने का स्टाइल होता है । पर जब यही आमआदमी किसी शोभायात्रा में चलता है तो उसका रूप परिवर्तित हो चुका होता है । हांलाकि वह यहां भी भीड़ में अपने को अलग दिखने की लालसा को बल देता है । आम आदमी एक खास अवसर को अपनी पहचान बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है । वह दिखाना चाहता है कि वह उस भीड़ का महत्वपूर्ण भाग है जो जुलूस में शामिल है । दरअसल आम आदमी ऐसा पुतला होता है जो अपने शरीर में ढेर सारी अतृप्त आकांक्षाओं को समेटे रहता है । शोभायात्रा या बारात या ऐसे ही कोई आयोजन उसके लिए अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को तृप्त करने का महत्वपूर्ण स्थल बन जाते हैं वह इसका भरपूर लाभ लेना चाहता है । इसके लिए वह या तो अपने सिर पर रंगीन सी पगड़ी बांध लेता है अथवा माथे पर लाल सुर्ख सिंदूर से तिलक लगा लेता है । वह नये या साफ धुले-धुलाये कपड़े पहनता है, धार्मिक जुलूस में वह कुरता पायजामा पहनता है उपर से जाकिट डाल लेता है एक गमछा भी उसके गोल गले को घेरता हुआ डला रहता है जिसकी एक पूंछ टेंटूआ को कव्हर करती हुई लटकती नजर आती है । इसके बाद भी जब लगने लगता है कि वह भीड़ में अलग दिखाई नहीं दे रहा है तो वह ‘‘व्यस्त आयोजक’’ का रूप रख लेता है । वह बैड बाजे वालों को निर्देशन देने लगता है कभी शोभायात्रा में चल रहे घोड़े या ट्रेक्टर या कार जीप वाले को राह दिखाने का काम करने लगता है । हांलाकि इसके लिए उससे किसी ने बोला नहीं होता है । वह जबाबदारी पसंद व्यक्ति बन जाता है । वह माथे पर नहीं आ पाये पसीने को बार-बार पौछता है ‘‘देखने वाले को थोड़ी न मालूम है कि उसके माथे पर पसीना नहीं आया है’’ के भाव उसके चेहरे पर होते हैं । पसीना पौछने के बाद कनखियों से चारों ओर देखता है और एकाध व्यक्ति भी उसे यदि अपनी ओर देखते हुए दिखाई दे जाता है तो उसके चेहरा लाल हो जाता है । वह अपने जेब से जर्दा की पुड़िया निकालता है और ‘‘एक चुटकी सिंदूर’’ की तर्ज पर एक चुटकी जर्दा निकाल कर अपनी हथेलियों पर रख लेता है, उसे घिसता है और चलते हुए अपने ओठों के बीच डाल देता है । वह फिर कनखियों से चारों ओर देखता है । शहर के मुख्य मार्गो से गुजरता हुआ वह उस दुकान की ओर जरूर देखता है जिसके पैसे उसे देने होते हैं और उस दुकान को भी देखता है जिससे उसे आने वाले दिनो में सामान लेना होता है । वह इन दुकानदारों को प्रभावित करने का अवसर हाथ से नहीं छोड़ना चाहता । वह अपने आपको जुलूस का आयोजक घोषित कराने का सफल या असफल प्रयास अवश्य करता है । आम आदमी की अतृप्त आकांक्षा चाहती है कि कोई उससे जुलूस के साथ चल रहे बैंड बाजे की आवाज में नाचने के लिए कहे चूकिं वह एक जबाबदार व्यक्ति है इस कारण वह स्वंय नाच नहीं सकता है पर वह नाचना चाहता है । यह स्थिति सबसे अधिक खतरनाक होती है वह वह करना चाहते हैं जो मन में है पर इसके लिए कोई मनाए भले ही नहीं पर कम से कम कहे तो की इच्छा जोर मार रही होती है वह ‘कोई कह दे’’ इसके लिए भांति-भांति के स्वांग रचता है, वह अपने पैरों को हिलाता-ढुलाता है, वह अपने हाथों को नृत्य मुद्रा में आगे-पीछे फेंकता है, वह सामने नृत्य कर रहे व्यक्ति की बुराई तक करता है ‘‘ये भी कोई नाचना हुआ क्या पागलों जैसे हवा में हाथ पांव मार रहे हैं ऐसे में किसी को लग गया तो कौन जबाबदार होगा, मैं तो बल्किुल नहीं होउंगा’’ । सुनने वाला उसे ऊपर से नीचे तक देखता है और अनसुना कर देता है । उसका मन चाट्टा हो जाता है बताओं ये तो मेरा अपना वाला था इसने तक नहीं कहा कि ‘‘तुम ही नृत्य कर के दिखा दो’’ । खटास भरे मन से वह फिर नृत्य का आनंद ले रही भीड़ को देखता है उसे कुछ महिलायें और लड़कियां भी नजर आ जाती हैं अब उसके सब्र का बांध टूटने लगता है वह जोर से हाथ पांव फेंकता हुआ नृत्य करने वाली भीड़ में सम्मलित हो जाता है और मन की भीषण गहराई में छिपी अपनी नृत्य प्रतिभा के बांध के गेट खोल देता है । उसे लगता है कि हर दर्शक, पृथ्वी की चारों दिशायें, इन्द्र के राजदरबार की सारी अप्सरायें उसका नृत्य देख कर आनंदित हो रहीं हैं । वह केवल ऐसी कल्पना कर लेने से ही आंनदित हो जाता है उसके गालों का रंग और सुर्ख हो जाता है । वह नाच नाच कर अपने आपको थका लेता है । पर उसे थकान महसूस नहीं होती । उसकी अतृप्त आकांक्षा की पूर्ति का दिवस है । वह भीड़ का देखता है अब वह चाहता है कि कोई उससे कहे कि ‘‘क्या नाचते हो भाई, मजा आ गया’’ । पर कोई नहीं कहता उसका मन क्षोभ से भर जाता है ‘‘बताओ साब लोग प्रशंसा करने में भी कंजूसी करते हैं ’’ । वह अपने मित्र से पूछता है ‘‘कैसा लगा नृत्य’’ । मित्र उसकी ओर देखे बगैर दूसरे नाचने वाले की प्रशंसा में कसीदे पढ़ देता है । उसे लगता है ‘‘हे प्रभू ! आज धरती फट ही जाए और वह भी सीता मईया के जैसे इस धरती में समा जाए, अच्छाई की कद्र ही नहीं है भैया’’ । हताश मन से वह जुलूस में आगे बढ़ता है । जुलूस जब वीरान इलाके से होकर गुजरता है तब वह अपने आपको षिथिलता प्रदान करता है । एक जुलूस आम आदमी के लिए ढेर सारी उम्मीदें लेकर आता है जिसके पास उम्मीदें नहीं होती वह या तो जुलूस में ही शामिल नहीं होता और यदि होना भी पड़ा तो मुरझाये तन और मन से होता है । उसका जुलूस में होना न होना एक बराबर ही साबित होता है । उम्मीदों का बोझा लिए आम आदमी जुलूस में मचल-मचलकर चलता है और दो तीन दिनों तक जुलूस की अनकही दांस्ता बयां करता रहता है ।

कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर म.प्र.

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