
विश्व का कल्याण हो अब , दूर नर का त्रास हो,
हम विजित होंगे यही सबका अटल विश्वास हो..
रुष्ट है कुदरत, धरा आकाश अनजाने हुए,
पंछियों के मौन स्वर, तरुवर भी वीराने हुए,
है हवाओं में गरल, दूषित हुआ है नीर भी,
पर मनुज निज स्वार्थ की है ज़िद वही ठाने हुए,
दो सबक अब तो उसे निज भूल का आभास हो..
आसुरी ताण्डव से अब, धरती व्यथित होने लगी,
चेतना सब प्राणियों की, धीरता खोने लगी,
मौन हैं सारी दिशाएँ, दृश्य हैं धुँधले सभी,
हो रहे व्याकुल सभी, सृष्टि विकल रोने लगी,
दूर हो नैराश्य तम, मन में विजय की आस हो..
फिर छिड़ें मुरली की तानें, कृष्ण का अवतार हो,
गूँज उठें फिर से ऋचाएँ, शांति का विस्तार हो,
गंध समिधा की करे, निर्मल धरा आकाश को,
विश्व का सिरमौर भारत जग में जय जयकार हो,
प्रार्थना है बस यही पतझड़ में भी मधुमास हो..
रश्मि शर्मा
उदयपुर (राजस्थान)