बुढ़ापा…

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aalok
मैं भी जीना चाहता हूँ…
शामिल होना चाहता हूँ
तुम्हारी दुनियाँ में
बिलकुल वैसे ही…
जैसे शामिल हुए थे
तुम
मेरे जीवन में
एक जीवन्त आशा लिए।

मेरे सूखे अधरों पर,
बारिश की फुहार बनकर..
मेरी सांसों की रफ़्तार बनकर,
एक खुशनुमा एहसास
लेकर समाए थे
तुम
हमाररे अरमान बनकर।

याद है न…..
कैसे अंगुलियाँ पकड़कर,
लोगों से मिलवाता था
तुम्हें
और फख्र से
चौड़ा हो जाया करता था
सीना मेरा।

भूल गए न…
कैसे संजोता था,
तुम्हारी यादों को
और
तुम्हारी
एक ख़ुशी के लिए
भूल जाता था
अपनी सारी ख़ुशी।

मेरी एक गलती पर,
कितना चिढ़ जाते हो..
तुम
है न…
पता है…
तुम्हारी हर गलती पर
हम बस मुस्कुरा दिया करता थे,
और प्यार से
समझाते थे
तुम्हें।

जानते हो…
अब उसी तरह,
तुम्हारी जरूरत है
मुझे भी..
आज उसी प्यार की
दरकार है मुझे भी।

मेरे ऊपर का,
कोई भी खर्चा..
फिजूलखर्ची
लगती है न तुम्हें,
याद है…
कितने खिलौनों को
खेल-खेल में
तोड़ जाया करते थे तुम।

मेरा दिल तोड़ते हो,
और फिर कभी
पूछने भी नहीं आते..
पता है न…
तुम रूठते थे
तो हम जमीन-आसमान,
एक करके
तुम्हें झट से मना लिया करते थे।

आज जाने क्यूँ,
तुम
मुझे देखते ही..
घबरा जाते हो
मुझे किसी से मिलवाने में
शर्म-सी मेहसूस होती है,
तुम्हें
एक अलग ही-सी
दुनिया में
कैद कर देना चाहते हो
मुझे..
बिलकुल अलग-थलग
खुद से दूर।

भूल गए न शायद,
तुम
हम तुम्हें एक पल को भी
तन्हा नहीं छोड़ते थे।

जानता हूँ..
कि जानना नहीं चाहते हो,
तुम
ख्वाहिशें मेरी
जबकि…
मैं भी चलना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ..
समझना चाहता हूँ
तुम्हारी दुनिया को
तुम्हारी उँगलियों को पकड़कर,
ठीक वैसे ही
जैसे तुम चले थे कभी
मेरे साथ।।

                 #आलोक रंजन

परिचय: आलोक रंजन की शिक्षा स्नातक (प्रा.भा.इतिहास)है। आप लगभग सभी साहित्यिक विधा में लेखन करते हैं। प्रकाशित कृति आगाज़(साझा काव्य संग्रह) है तो, कुछ पत्रिकाओं में कविताएं,लघु निबंध प्रकाशितहैं। आप जिला बेगुसराय(बिहार)में रहते हैं।

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