शहर में

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मुनासिब  नहीं  हर  रोज मिलना  शहर में
बहुत मुश्किल है एकसाथ चलना शहर में।

ख्वाहिशें दम तोड़ देती है हर शाम यहां
हर सुबह उठाता है नया सपना शहर में।

कल की मुलाकात आज पुरानी हो जाती है
गिरगिट- सा रंग पड़ता है बदलना शहर में।

हंसते-गाते खुशियां मनाते मस्ती में मस्त लोग
फूट-फूट के बहुत होता भी है रोना शहर में।

बर्सी गमों की हंसी से होती है आजकल
आसूं कितने में पड़े,ये भी है जोड़ना शहर में।

मुकद्दर की रोटी भी जद्दोजहद से मिले है यहां
शौक रखते है लोग तेरा मेरा हक़ मारना शहर में।

रिश्तों में परवाह कौन करता है साहब इधर
अपनों से अपनी अस्म़त भी है लुट जाना शहर में।

ठोकरे खूब खाता है आदमी ‘जितेन्द्र’ यहां
नहीं है फिर भी सम्भल के चलना शहर में।

जितेंद्र शिवहरे
महू( इन्दौर)

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