कहानी- अंतर्द्वंद्व

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आज मुझे ऑफ़िस से घर आने में काफ़ी देर हो गई I जैसे ही कॉलोनी के गेट के अंदर क़दम बढ़ाया, देखा चारों तरफ़ शांत वातावरण था I मुझे केवल मेरे ही क़दमों की आहट सुनाई दे रही थीI सब सो चुके थेI हर घर की बत्ती बंद थीI मैंने अपने घर के सामने पहुँचकर जैसे ही अपना हाथ दरवाज़ा खटखटाने के लिए उठाया, तभी मेरी निगाहें मेरे साथ वाले घर के बरामदे पर गईंI मुझे ऐसा लगा, वहाँ कोई हैI पर रोशनी न होने के कारण ठीक से दिखाई नहीं दे रहा थाI मन में जिज्ञासा हुई तो मेरे क़दम अपने आप उस ओर बढ़ गएI जैसे-जैसे मैं बढ़ी उनकी तस्वीर साफ़ होती गई I देखा, यह क्या! ये तो कौशिक अंकल हैंI उनके बाल रुई की तरह सफ़ेद हैंI चेहरे पर बारीक़-बारीक़ झुर्रियों ने मानो अपना घर बना लिया होI मैंने हमेशा उनमें एक तेज देखा, जो सामने वाले में हमेशा सकारात्मकता प्रदान करताI पर आज उनके चेहरे पर वो तेज क्यों नहीं हैं? और वो अकेले क्यों बैठे हैं?
पहले तो कभी उन्हें अकेले व शांत नहीं देखा I हमेशा अपने परिवार के साथ ही दिखाई देते हैंI यकायक मैंने पूछ ही लिया- “क्या बात है अंकल? आप ऐसे अकेले क्यों बेठे हैं?”

उन्होंने अपनी नम आँखों से मेरी ओर देखाI वो ख़ामोश थे पर उनकी आँखें ख़ामोश नहीं थींI ऐसा लग रहा था मानो कितने तूफ़ान उनकी आँखों में तैर रहे हैंI मैं उनकी बेचैनी साफ़ तौर पर महसूस कर पा रही थीI मुझसे उनका तनाव बर्दाश्त नहीं हो पा रहा थाI मैं उनके दर्द को कम करना चाहती थीI इसलिए सामने से ख़ुद ही पूछ लिया –
“क्या बात है अंकल? कोई परेशानी है क्या?”

अंकल ने अपने सिर को हिलाते हुए मना किया और कोई जवाब नहीं दियाI
फिर मैंने उनसे आत्मीयता से कहा- “आप मुझे अपनी बेटी कहते हैं तो अपनी इस बेटी को अपनी परेशानी बताइयेI हो सकता है कि मैं आपकी परेशानी सुलझा तो न पाऊँ पर आपके दुःख को बाँट ज़रूर सकती हूँ I”
मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देनी चाहीI मेरा हाथ रखते ही उनकी आँखों से एक के साथ नौ-नौ आंसू बहने लगेI मुझे आश्चर्य हुआ, जिस इंसान को मैंने हमेशा हँसते हुए पाया, दूसरों को प्रोत्साहित करते देखा, सुबह उठकर जो इंसान मुस्कराते हुए सबसे मिलता है, वो आज इतना उदास!
सामने से दर्द भरी आवाज़ आई- “भगवान ने ये रिश्ते क्यों बनाये हैं बेटा ?”
उनकी आवाज़ में कम्पन थाI इतना बोल कर वे फिर शांत हो गएI ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों वहाँ होकर भी वहाँ नहीं हैंI कुछ देर बाद मैंने पूछा-
“आप कहना क्या चाहते हैं? आपके पास तो अपने इस सवाल का जवाब हमेशा रहता हैI आप ही तो कहते हैं कि अगर दुनिया में रिश्ते ही न हों तो अपनेपन का वजूद ही नहीं रहेगाI”
उन्होंने अपने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा- “आज मुझे अपनी कही बात ही सही नहीं लग रही या ये बात मेरे ऊपर लागू ही नहीं होती I”
उनकी आँखों के आंसू बंद ही नहीं हो रहे थेI बार-बार उनके मुँह से बस यही शब्द निकल रहे थे कि “तुम हमेशा अपने लिए ही जीना, पर कभी अपनों के लिए मत जीना I”
उनकी इस बात से यह तो साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि इन्हें किसी अपने ने अंदर तक तोड़ दिया है I उन्होंने लम्बी साँस लेते हुए अपनी पलकों को बंद किया और कमर को पीछे ले जाकर शांतचित्त बैठ गएI मैं उनकी तरफ़ टकटकी लगाकर लगातार देखे जा रही थीI शायद मुझे आगे जानने की जिज्ञासा थी इसलिए उनके बोलने का इंतज़ार कर रही थीI
चारों तरफ़ कोई आवाज़ नहीं थी I अंकल ने गहरी साँस लेते हुए अपनी बात कहनी शुरू की- “तुम वीरेंद्र को को तो जानती हो न?”
“जी जानती हूँ I वो तो आपके छोटे भाई हैंI” मैंने उनके सवाल का जवाब दिया I
अपनी बात पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा- “ठीक कहा, वो मेरा छोटा भाई ही है पर आज लग रहा है कि मैं उसे जानता ही नहींI”
“पर आप ऐसा क्यों कह रहें हैं? आख़िर बात क्या है?” मैंने पूछा…
उन्होंने कहना शुरू किया- “वीरेंद्र, मैं और मुन्नी हम दो भाई एक बहन हैं I हम अपनी माँ को चाची कहते हैं और पिताजी को पिताजीI हमारा बचपन कुछ अच्छा नहीं थाI पिताजी के पास छोटा-सा ही खेत थाI वो ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थेI चाची बिलकुल अनपढ़ थी और घर के नाम पर बस एक छप्पर डाली हुई थीI मैं घर में सबसे बड़ा हूँI मैंने अपने माता-पिता के कष्टदायक दिन देखे हैंI इसलिए कभी नहीं चाहा कि उन कष्टों की छाया भी वीरेंद्र और मुन्नी पर पड़ेI”
वो कहते जा रहे थे और मैं एकाग्र होकर सुनती जा रही थीI उनकी बातों और तनाव की गहराइयों को अंदर तक महसूस कर पा रही थीI वे आगे बोले- “जब मैं ग्यारह वर्ष का था, तभी से मैंने अपने घर को सम्भाल लिया था I”
अंकल के चेहरे पर एक संतुष्टि झलक रही थीI पता चल रहा था कि उन्होंने अपने कर्त्तव्य को पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाया हैI अंकल का बोलना जारी था –
“गाँव मे मैं पहला लड़का था जिसकी नौकरी दिल्ली में लगी थीI नौकरी की बात सुनते ही वीरेंद्र ख़ुशी से बोला- ‘अरे वाह भैया अब तो आप दिल्ली में रहोगेI मैं भी आपके साथ चलूँगाI आप जानते हो न मैं आपके बिना नहीं रह सकताI’
मैंने हामी भर दीI मेरे हामी भरते ही उसने पूरे गाँव में शोर मचा दियाI
‘हु हु हु रे रे रे हुर्र….. मैं भी भैया के साथ शहर जा रहा हूँI’ तब से लेकर आज तक वीरेंद्र मेरे साथ ही हैI मैंने हमेशा उसका साथ दियाI हर चीज़ में हमेशा पहले उसको रखाI उसकी हर इच्छा का सम्मान किया। उसकी शादी भी मैंने अपने हाथों से ही कीI धीरे-धीरे उसके रवैये में बदलाव तो आ रहा था पर मैंने सोचा कि शायद समय की यही माँग हैI वक़्त के हिसाब से हमें भी बदलना चाहिएI”
मैंने उनको बीच में ही रोकते हुए कहा- “पर अंकल, वीरेंद्र अंकल ने आज ऐसा क्या किया, जो आपको इतनी निराशा हो रही है?”
अंकल ने हँसते हुए कहा- “आज उसने मुझे अपने आप से आज़ाद कर दिया I”
“क्या?” मैं भौचक्की-सी रह गई
“आज़ाद कर दिया! इसका क्या अर्थ है?” मैंने तपाक से पूछाI
उन्होंने जवाब दिया- “इसका अर्थ है कि अब मैं कहीं भी रह सकता हूँI कहीं भी सो सकता हूँI सारा जहान मेरा है, सिवाय वीरेंद्र की ज़िन्दगी केI”
फिर कुछ देर के लिए ख़ामोशी छा गईI मैं उठी और अपने बैग से पानी की बोतल निकालकर अंकल की तरफ़ बढ़ाई I उन्होंने पानी का एक घूंट पिया और बोतल को अपने सिराहने रख लिया I जैसे ही मैं उनके सामने बैठी फिर मेरा सवाल-
“अंकल! घर तो आपका है ना?”
मेरा सवाल अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि उन्होंने बीच में रोकते हुए कुछ पन्नें मेरे सामने रख दिएI मैं एक-एक पन्ना पढ़ती गयी और पलटती गयीI मुझे मेरे सवालों के जवाब मिल चुके थेI
वो पन्नें चीख़-चीख़ कर कह रहे थे कि ‘अपने लिए जियो पर अपनों के लिए मत जियोI’
धोखे से वीरेंद्र अंकल ने कौशिक अंकल का सब कुछ अपने नाम कर लिया थाI कौशिक अंकल और आंटी से उनकी छत तक भी छीन ली थी, उन्हें इस संसार में अकेला कर दियाI
मेरे मन में यही आ रहा था कि कोई अपना भी इस हद तक नीचता पर उतर सकता है!
मैं अंकल से कुछ कह पाती, इतने में चिड़ियों की चहचहाहट ने हमारा ध्यान भंग किया तो मैंने महसूस किया कि भोर हो चली हैI आसपास फिर से ज़िन्दगी की चहल-पहल शुरू हो गयीI
अंकल उठे, अंदर गएI आंटी का हाथ थामे बाहर निकलेI मेरे क़रीब आयेI मैं शून्य थीI मेरी आँखें नम थींI अंकल ने मेरे सिर पर हाथ रखाI उनका हाथ रखते ही मेरा दिल भर आयाI मैं कुछ कह पाती, उससे पहले ही वो बोल पड़े-
“ये हमारी ज़िन्दगी का तीसरा दौर शुरू I”
और फिर वो अपने घर से दूर बाहर गेट की तरफ़ चल दिएI सबसे वैसे ही मिले जैसे रोज़ हँसते-मुस्कराते हुए मिलते थेI किसी को भनक भी नहीं लगी कि पिछली रात उनके साथ क्या हुआ और अगली बार वो कब मिलेंगे! अब उनके चेहरे पर वो तनाव नहीं था, वो हताशा नहीं थीI वो आंटी जी का हाथ थामे अपनी ज़िन्दगी के तीसरे पड़ाव की ओर चल दिएI मैं उन्हें जाते हुए तब तक देखती रही, जब तक वो मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गएI

मैंने वापस अपने घर की ओर रुख किया तो महसूस किया कि मैं चल नहीं पा रहीI मेरे पैर डगमगा रहे थेI किसी तरह मैं लड़खड़ाते हुए अपने घर के दरवाज़े तक पहुँची और दरवाज़ा खटखटायाI मेरी छोटी बहन ने दरवाज़ा खोलाI मैं अंदर गईI देखा माँ खाना बना रही हैं, पिताजी अख़बार पढ़ रहे हैं, बड़ा भाई चाय पी रहा है और छोटी बहन चहल-पहल कर रही हैI मैं चारों तरफ़ अपने रिश्तों को सवालिया नज़र से देख रही थी और अपने विश्वास को ढूँढ रही थीI मैं किसी से कुछ कहे बिना अपने कमरे में आ गईI बेचैन मन से बिस्तर पर लेट गईI मुझे अब नींद नहीं आ रही हैI बस अंकल की कही बातों ने मेरे दिलो-दिमाग़ पर एक छाप छोड़ दीI
उनके विश्वास और दिल के टूटने की आवाज़ मैं अभी भी महसूस कर रही हूँI
क्या सच में अपने लिए जीयूं, अपनों के लिए नहीं…………..?

#भावना शर्मा, दिल्ली

राष्ट्रीय सचिव, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत

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