माँ!
क्या लिखूँ तुम पर माँ?
स्वयं तुम काव्य हो छंदों भरी,
कहानी हो व्यथा भरी,
संस्मरण हो अपनों के सपनों की।
कैसे तुम्हें बांटू मैं?
तुमने जिया मुझमें अपना बचपन,
जो तुम बाबुल की देहरी पर
कमसिन उम्र का छोड़ आई।
तुमने सपने संजोकर अपने
पूर्ण किये मुझमें,
जो कभी तुमने देखे थे अपने
बचपन के खिलौनों में।
संस्कार और सभ्यता मुझमें तुमने
साम–दाम–दंड–भेद प्रित सहित
कूटकर भर दी,
क्योंकि वास्तविकता से पाला तुम्हारा पड़ता आया।
माँ! आज उम्र के हर मोड़ पर
तुमने साथ दायित्वों, कर्त्तव्यों
का निभाया,
पर जाने क्यों तुम अब साथ नहीं माँ,
अकेला मधुकुंज बिन तुम्हारे
हरा–भरा नहीं रहता अब माँ।
थपकियों का स्पर्श, यादों की लोरी,
वो तुम्हारा मुझे चूमना
और मेरा तुम्हारे आँचल में छुप जाना,
वो नादाँ सा बचपन
अधेड़ावस्था में अधूरा–सा लगता है,
लौट आओ नादाँ से बचपन में,
चलो माँ, तुम और मैं
संग जियें।
#माधुरी सोनी ’मधुकुंज’
अलीराजपुर (मध्य प्रदेश)