अगस्त 2005 की बात है,जब यह अनुभव मैंने जिया। कुछ महीने पहले ही मेरी शादी हुई थी। शाम का आसमान गहरे भूरे रंग के बादलों से भरा हुआ था। ऐसा लगता था कि, किसी भी क्षण उनका धीरज बस टूटने ही वाला है और बरस पड़ेंगे। चारों ओर अँधेरा-सा छाया हुआ था और ठंडी-ठंडी हवा,जिसमें मिट्टी की मनमोहक सोंधी-सोंधी खुशबू घुली थी,जो जल्द ही भारी बारिश आने की सूचना दे रही थी। मैं शाम की ट्यूशन की आखरी बैच को पढ़ाकर अपने घर(जो अभी ढाई किलोमीटर दूर था) जाने को था।
मेरे शहर खरगोन के टाउन हॉल के सामने ही सब्ज़ी मंडी है,जो घर के रास्ते में ही पड़ती है। वहाँ से घर के लिए कुछ सब्ज़ी लेने का मन हुआ तो उधर मुड़ गया। मौसम की तब्दीली को देखते हुए सब्ज़ीवाले घर जाने की जल्दी में थे और मैं भी, इसलिए सौदा जल्दी ही पट गया। मैं सब्ज़ी की थैलियां गाड़ी के हैंडल पर टांगकर बाहर निकला। बाहर निकलते ही मेरी नज़र टाउन हॉल की चारदीवारी के पास नीचे ज़मीन पर बैठकर सब्ज़ी- भाजी और फल बेचते कई दुकानदारों की कतार में बैठे एक व्यक्ति पर पड़ी। वो दो छोटे-छोटे पिंजरे,जो मजबूत तारों से बने थे,लिए बैठा था। पता नहीं, किस आकर्षण से बंधा मैं उस व्यक्ति के पास खिंचा चला गया। उस व्यक्ति के सिर पर बड़े-बड़े बाल और चेहरे पर घनी दाढ़ी-मूँछ थी,जिसने उसके चेहरे के एक बड़े हिस्से को ढंकने के साथ ही उसे अनोखा आकर्षण भी दे रखा था। वह व्यक्ति मैले-कुचैले कपड़े पहने था। सिर पर कसकर बंधे साफे,कानों में कुंडल पहने,बदन पर कुर्ता,कमर में धोती लपेटे और पैरों में प्लास्टिक के जूते पहने हुए अपने दोनों पैरों पर उकडूं बैठा था। उसका शरीर मज़बूत और गठीला था। पास ही उसकी लाठी भी दीवार के सहारे टिकी थी। उसके चेहरे पर कठोर भाव थे,जो दुनिया की बेरुखी और कड़वे अनुभवों से आते हैं । वह दो पिंजरे लिए,जिसमे दो तोते बंद थे,अपने सामने की सड़क पर आते-जाते लोगों पर इस उम्मीद से नज़र डाल रहा था कि,शायद कोई इन पक्षियों का चाहने वाला बचे हुए पक्षियों को भी पालने के लिए खरीद ले और वह जल्दी से घर जा सके। उसे देखकर मैंने पहली बार जाना कि, बचपन में जिस बहेलिए के बारे में नन्दन,चम्पक और चंदामामा की कहानियों में पढ़ा था,वह कैसा होता है। उसके मज़बूत पिंजरों में बन्द,डरे-सहमे तोते रह-रहकर आसमान की ओर देखकर बड़ी ही मार्मिक आवाज़ में शोर मचा रहे थे। वे इतनी तेजी से अपने पंख फड़फड़ा रहे थे,जैसे पिंजरे सहित उड़ जाना चाहते हों। शायद अपने घर की याद उन्हें भी आ रही थी,लेकिन बेबस थे। उन्हें देखकर मेरे मन में आया कि,मैं इन दोनों तोतों को पालने के लिए खरीद लूं। मैंने उस बहेलिए से पूछा कि, इन तोतों के दाम क्या हैं? उसने दाम बताए और मैंने मोल भाव किया। कुछ ही देर में सौदा पट गया और उसने दोनों पिंजरे मेरे हाथ में थमा दिए तो,मैंने उसके हाथ में रुपए। मैं पिंजरा लेकर चलने ही वाला था कि,अचानक मेरी अंतरात्मा ने मुझे प्रेरित किया। मेरे मन ने कहा कि-‘तोते मुझे घर नहीं ले जाने हैं,उन्हें पिंजरे की कैद से मुक्त करना हैं।’ आवाज़ इतनी प्रबल थी कि, मैंने बहेलिए से कहा-‘आप तो इन्हें उड़ा दो और ये पिंजरे भी आप ही रख लो।’
उसने मुझे बड़े ही आश्चर्य से देखा और बगैर कुछ कहे पिंजरों के दरवाज़े खोल दिए। दरवाज़े खुलते ही दोनों तोते पिंजरे की कैद से बाहर अपने पंख फड़फड़ाते हुए ख़ुशी से आवाज़ें निकालते उड़ गए। दोनों आसमान में चक्कर लगाकर कुछ देर बाद टाउन हॉल के सामने स्थित स्टेट बैंक के अहाते में लगे अशोक के पेड़ पर आकर बैठ गए। कुछ देर तक बहेलिए और पिंजरे को देखते रहे,फिर खुले आकाश में न जाने कहाँ उड़ गए।
थोड़ी देर तक मैं भी उन्हें उड़ते हुए देखता रहा। उन्हें आज़ादी से उड़ते देखकर मेरा मन एक सुखद अहसास से भर गया। पता नहीं, क्यों मुझे ऐसा लगा,जैसे खुद मुझे ही किसी कैद से मुक्ति मिली हो। मुझे इतनी ज्यादा आत्मिक ख़ुशी मिली,जैसे भीषण गर्मी से सूखकर कठोर मिटटी के ढेले पर झूमकर सावन बरसा हो। जैसे पानी उसके अंदर जाकर ह्दय को छूता है,तो कठोर मिटटी का ढेला तृप्त होकर कण-कण होकर बिखर जाता है, वैसा ही अनुभव मैंने किया। वह सुकूनदायक और प्यारा अहसास आज तक मेरे जेहन में इतना ही ताज़ा है, जैसे कल की ही घटना हो। तब मैंने पहली बार महसूस किया कि, दया और करुणा के वशीभूत होकर आप दिमाग की नहीं, बल्कि अपने ह्दय की सुनते हैं। ह्रदय से लिए गए वो फैसले आपको दुनियादारी के तय पैमाने पर भले ही कोई फायदा न पहुँचाएं,लेकिन आत्मिक रूप से समृद्ध करते हैं और आपको एक बेहतर इंसान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
तभी बादल जोर से बरस पड़े। पानी ने मुझे,सामने वाले पेड़ को,खाली पिंजरों के साथ बहेलिए को और पूरे शहर को अंदर तक भिगो दिया।पता नहीं, क्यों उस दिन बारिश बड़ी देर तक होती रही।
समय अपनी गति से गुजरता रहा। इस दौरान मैंने पत्नी योगिता के मुँह से दो बार नए मेहमान के आने की खुशखबरी सुनी,लेकिन हमारा सपना सच नहीं हो पाया। ढाई वर्ष के अंतराल में दो बार हमें भीषण दुःख का सामना करते हुए बच्चे खोना पड़े। तमाम सावधानियों के बावजूद ऐसा क्यों हुआ,कोई डॉक्टर नहीं बता पाया। अंततः 2008 में परमेश्वर की मेहर हुई और उसने हमें बेटा दिया।
पुनःश्च,पता नहीं क्यों,मुझे महसूस होता है कि तोतों को आज़ाद करने और दो बच्चों के खोने की घटना में कोई संयोग ज़रुर है। वो संयोग क्या है, ये मुझे आज तक समझ नहीं आया, शायद कभी ईश्वर किसी संकेत से मुझे समझाएगा।
(अनुभव पर आधारित सच्ची बात )
सुनील देशपांडे
परिचय : सुनील देशपांडे इंदौर में ही रहते हैं।पेशे से आप शिक्षक हैं तथा कई विषयों पर कलम चलाते रहते हैं।
Bahut badhiya
आप कि सच्चि कहानि अन्तर आत्मा तक छु गई आप को ईश्वर शुभ फल देगा
धन्यवाद कल्पना जी।
दिलीप शर्मा जी आपके भावनाओ में भीगे कमेंट के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।