अपने ही दम पे उड़ती हुई पतंग हूँ, पता नहीं डोर का कच्ची है,कि पक्की, हवाओं के सहारे निकली हुई पतंग हूँ। मिल जाए खुला गगन तो पवन की क्या बिसात, अंदर से चोट खाई हुई पतंग हूँ। कौन उड़ाए, कौन काटे कौन लूटेगा मुझे, क्या पता ? लुटेरों की […]
काव्यभाषा
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