दर्पण तू साँची कहइ , झूठइ जग सब लोग। किरच किरच हो जात है,साँच यही संजोग।। साँच सहन नहि कर सकै,जग पाखंडी धूर्त। दर्पण दोष करार दइ , लखइ न अपणो मूर्त।। दशरथ देख्यो आइनो, रामहि राज विचारि। रामलषनसिय वन गये,वै परलोक सिधारि।। . दर्पण थारी साँच सूँ , खिलजी […]
काव्यभाषा
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