
कोरोना का प्रकोप दिनों दिन बढता जा रहा है। जीवन बचाने के लिए लोगों को बेहद मारामारी करना पड रही है। देश-दुनिया में स्वास्थ सुविधाओं का ढांचा चरमरा गया है। अचानक मरीजों की संख्या में भारी बढोत्तरी हो रही है। महानगरों में तो हालात बद से बद्तर हो रहे हैं। जहां एक ओर दवाइयों का टोटा पड रहा है वहीं दूसरी ओर मुनाफाखोरों को इस अवसर पर भी खून में डूबे पैसे बटोरने की पडी है। इंजेक्शन से लेकर आक्सीजन तक की काला बाजारी हो रही है। वैन्टिलेटर जिन्हें मिल गया वे स्वयं को बडा भाग्यशाली मानते हैं।
स्वास्थकर्मियों की बेहद कमी है तिस पर सरकारी अस्पतालों के अधिकांश वरिष्ठ चिकित्सकों को अपने आवास पर मरीजों से तगडी रकम खींचने की पडी है। अस्पतालों के गेट पर ही मानवता का लबादा ओढे दलालों की भीड मौजूद मिलती है जो अपनों की जिन्दगी बचाने के लिए परेशान लोगों को चिकित्साकों के आवासों पर पहुंचाते। इन चिकित्सकों ने अपने आवास पर बकायदा निजी अप्रशिक्षित कर्मचारियों की फौज तैनात कर रखी है, स्वयं के संरक्षण में मेडिकल स्टोर और जांच केन्द्र खोल रखे हैं जिन्हें नवसिखिये संचालित करते हैं।
मरीज की अनेक जांचें करवाने के बाद किसी खास कम्पनी की ढेर सारी दवाइयां लिख दी जाती हैं। यहां भी मरीजों और उनके तामीरदारों के साथ पशुओं जैसा ही व्यवहार हो रहा है। इन आवासों पर काम करने वाले कर्मचारी मनमाने दामों पर आक्सीजन सिलैण्डर से लेकर इंजैक्शन तक मुहैया करा रहे हैं। दूसरी ओर अधिकारियों के फोन न उठने, उत्तरदायी लोगों व्दारा मरीजों के साथ दुव्यवहार करने तथा शिकायतों पर ध्यान न देने के अनेक मामले रोज ही सामने आ रहे हैं।
कोरोना का दूसरा चरण बेहद खतरनाक होता जा रहा है। जांच रिपोर्ट पर भी प्रश्नचिन्ह अंकित हो रहे है। वैक्सीन का पहला डोज लगवाने के बाद अधिकांश लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है। बुखार आने लगता है। भूख समाप्त हो जाती है। खांसी और सिर दर्द की समस्या खडी हो जाती है। ऐसे मरीजों की संख्या में भी भारी बढोत्तरी हो रही है।
हाल ही में देश के प्रधानमंत्री ने गरीबों को दो माह का राशन मुफ्त में देने की घोषणा की है। अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने एक हाथ आगे बढकर तीन माह का राशन देने की बात कही है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि आखिर गरीब है कौन, वो जिसने जुगाड करके गरीबी की रेखा के नीचे की सूची में नाम दर्ज करवा लिया है या वह वास्तविक मजदूर जो लम्बे समय तक तहसीलों के चक्कर लगाने के बाद भी स्वयं को गरीब घोषित नहीं करवा पाया। अधिकांश जुगाडू परिवारों ने अतिक्रमण करके पहले सरकारी जमीनों पर मकान बना डाले और फिर एक ही परिवार में पुत्र, पुत्री सहित अनेक रिश्तेदारों के अलग-अलग गरीबी रेखा के नीचे वाले कार्ड भी हासिल कर लिये और अब मौज मना रहे हैं।
यह मुद्दा कोरोना के पहले चरण के दौरान बेहद जोरशोर से उठाया गया था परन्तु अपात्रों के नाम दर्ज करने वालों को ही तो जांच करना थी, सो मामले की लीपापोती कर दी गई। राजस्व विभाग की कार्यप्रणाली पर हमेशा सवालिया निशान लगते रहे। मामले कोर्ट तक भी पहुंचे परन्तु राजस्व अधिकारियों, कर्मचारियों को कभी मनमानी इंट्री करने के लिए शायद ही कभी जेल हुई हो। इस सब से उनके हौसले आसमान पर हैं।
कोरोना काल में तो शिकायतों से लेकर मनमानी के प्रमाण भी महात्वहीन हो रहे हैं। सरकारी अमले को तो निर्धारित समय पर बेतन प्राप्त होना चाहिये। आश्चर्य तो तब होता है जब अनेक सरकारी विभागों के लाखों अधिकारी-कर्मचारी प्रतिमाह बिना काम किये हजारों करोड का बेतन डकार रहे हैं। उच्चशिक्षा विभाग के प्रोफेसर्स लाख से अधिक, प्राइमरी स्कूलों के टीचर्स 50 हजार से अधिक, कृषि विभाग, सौरऊर्जा विभाग, नापतौल विभाग, आवकारी विभाग, वाणिज्य कर विभाग, लोक निर्माण विभाग, लोक स्वास्थ्य यात्रिकी विभाग, सिंचाई विभाग सहित दासियों ऐसे सरकारी महकमे है जिन पर हजारों करोड रुपये का व्यय केवल बेतन के नाम पर होता है जबकि वे लाकडाउन के बहाने पर बेतन सहित छुट्टी मना रहे हैं।
इन अधिकारियों-कर्मचारियों का जमीर इतना भी नहीं जागा कि वे खाली होते सरकारी खजाने में अपना एक-एक माह का बेतन देने की घोषणा कर देते। अधिकारियों-कर्मचारियों ने स्वयं के हितों और सरकार पर दबाव बनाने हेतु अनेक संगठन बना रखे हैं, जो छोटी से छोटी बात पर कर्मचारी एकता का नारा बुलंद करके सरकारों को झुका देते हैं, आम आवाम के विरुध्द मुकदमे कायम करा देते हैं परन्तु राष्ट्रहित में एक माह का बेतन देने में उन्हें पसीने आने लगेंगे।
कोरोना काल में खाली होते सरकारी खजाने के लिए सरकार को बनाना होगी ‘काम नहीं तो दाम नहींʼ की नीति। इसके तहत जो अधिकारी-कर्मचारी निरंतर सेवायें नहीं दे रहे हैं, लाकडाउन के कारण निरंतर घरों में रहकर बेतन सहित अवकाश आ लुत्फ ले रहें हैं और उन्मुक्त विचरण कर रहे हैं, उनकी तरख्वाय रोक देना चाहिए। इस बचत का उपयोग कोरोना से युध्द लडने में किया जाये। यह एक व्यवहारिक नीति है जिसे सभी को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। मगर यह भी सत्य है ऐसा करने का न तो सरकारों में साहस है और न ही मानवीयता दिखाने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों की मनोभूमि। सत्ता में काबिज दल अधिकारियों-कर्मचारियों का विरोध लेकर अपने वोट बैंक पर चोट नहीं करना चाहेंगे और यदि ऐसा हुआ तो कर्मचारी संगठन राष्ट्रहित की सोच को तिलांजलि देकर तत्काल मोर्चा खोल देंगे।
कुल मिलाकर संवेदनायें मर चुकीं हैं, व्यक्तिवाद हावी हो चुका है। लालफीताशाही से लेकर खद्दरधारियों तक ने कर्तव्यबोध का पिण्ड दान कर दिया है। इस महामारी के कम होते ही एक बार फिर उन्हीं मध्यमवर्गीय परिवारों से डंडे के बल पर टैक्स बसूला जायेगा जो आज अपनी रसोई के खाली पडे वर्तनों में आनाज का दाना ढूंढ रहे है। इन परिवारों की मजबूरी यह है कि वे स्वयं के सम्मान की खातिर खाना मांग नहीं सकते और कोई उन्हें दे नहीं सकता। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
डा. रवीन्द्र अरजरिया