सीखने का अंत नहीं

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मैं किन किन को छोड़ू,
जबकि सभी अपने हैं।
जीवन के सफर में,
मिला साथ मुझे सबका।
इसलिए तो मंजिल तक,
मैं पहुंच पाया हूँ।
और विजय ध्वजा को,
आकाश में फहरा पाया हूँ।।

जीत हार से जो भी
अपने को आंके।
वो लक्ष्य से बहुत दूर
जीवन में हो जाते है।
अहंकार के कारण ही,
हर मंजिल को हारते है।
सब कुछ होते हुए भी,
गुमनामी में खोज जाते है।।

न कोई उम्र सीखने की
और न कोई समय होता है।
जीवन के अंत तक लोगों
इसे सीखा जा सकता।
कोई मनुष्य इस संसार में
सम्पूर्ण ज्ञानी होता नहीं।
जो इस मूल मंत्र को
जीवन में जान लेता है।
वो ही मनुष्य एक दिन
ऊंचाईयों को छू जायेगा।।

जय जिनेन्द्र देव
संजय जैन (मुम्बई)

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