लोग कहते हैं कि मौन रहने से बेहतर है कि आप मुखर रहकर अपनी बात कहें।यानी बोलना जरूरी है वरना यदि मौनी बाबा बनकर रह गए तो आपकी कहीं दाल गलने वाली नहीं !लोग यह भी कहते हैं कि जब भी बोलो सोच-समझकर बोलो।उनकी बात तो ठीक है लेकिन जब बिना सोच-विचार कर कोई बात कहेंगे तो वह सत्य के करीब होगी और जहाँ सत्य उद्घाटित होता है वहाँ बड़े-बड़े हंगामे खड़े हो जाते हैं तब तो झूठ बोलना ही ज्यादा कारगर होगा न!क्योंकि झूठ के पैर नहीं होते हैं बल्कि पंख होते हैं, शायद इसीलिए वह हरेक जगह विचरण,संचरण कर लेता है।
हाँ, जब आपसे पूछा जाएगा कि आपने आज दिनभर में सच कब बोला तो आप सोच में पड़ जाएंगे, वहीं यदि यह प्रश्न किया जाएगा कि आपने झूठ कब बोला था तो सीधा सा जवाब होगा कि प्रातः काल से ही घर-परिवार में झूठ की शुरुआत करते हुए अपने कार्यस्थल और प्रत्येक ऐसी जगह जहाँ व्यवहार करना होता है, झूठ ही बोलना पड़ता है।कहते भी हैं कि झूठ बोलना मजबूरी है, झूठ के बिना काम चल नहीं सकता।एक बार सच नहीं बोलेंगे तो काम चल जाएगा लेकिन यदि झूठ नहीं बोले तो हर काम में रूकावट ही रूकावट!बिना झूठ के जीवन की गाड़ी कहाँ चल पाती है।कभी-कभी ही सत्य के प्रयोग कर लेते हैं लेकिन तब उसकी बड़ी कीमत भी चुकाना पड़ती है।हाँ, हम इस बात का कोई रेकार्ड नहीं रखते कि दिन,सप्ताह, मास और वर्ष में हमने कितना झूठ बोला।यह तो अमेरिकी मीडिया का दिमागी फितूर है जिसने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दो साल में आठ हजार एक सौ अट्ठावन बार झूठ बोला।पहले साल दो हजार और दूसरे साल छः हजार से अधिक बार!यानी पहले साल में रोजाना औसतन छः झूठ और दूसरे साल तक इसकी महत्ता को समझते हुए तीन गुना के करीब सत्रह बार।अर्थात उन्होंने भी राजनीति के क्षेत्र में सीख लेते हुए झूठ की महत्ता को समझ लिया।
सत्य के प्रयोग पर तो एक ही महात्मा ने लिखने का साहस किया था लेकिन क्या झूठ के प्रयोग पर लिखने के लिए आज के महात्माओं से हम उम्मीद करें! वर्तमान परिदृश्य में इस बात पर शोध किया जा सकता है कि इंसान को झूठ बोलने की आवश्यकता क्यों पड़ती है।मुझे लगता है कि सत्य की आवाज दिल से निकलती है और झूठ की आवाज़ दिमाग से प्रस्फुटित होती है।अब जबकि इंसान सच से ज्यादा झूठ से प्रभावित होने लगा है, झूठ का ही यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रयोग करने लगा है, झूठ की सीढ़ी ही प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते हुए दिखाई देती है जबकि सत्य की राह कंटकाकीर्ण दिखाई देती है तब इस बात को मानना मजबूरी ही है कि इंसानी शरीर में दिल कमजोर अंग है और दिमाग बलशाली!यह तो अच्छा है कि हमारे देश में फैक्ट चैकर्स ऐसे कोई डेटा तैयार नहीं कर रहे हैं वरना फिर ये एक झूठ को सौ बार बोलकर सच बनाने वाले कैसे बच पाते और उनके बारे में यही कहा जाता कि- “सय्या झूठों का बड़ा सरताज निकला।”
डॉ प्रदीप उपाध्याय
देवास,म.प्र.