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कल खुद को देखा आईने में और मैं डर गया
किसी का कद मेरे रिश्तों पे यूँ भारी पड़ गया
जिस शाख में सिमट कर ज़िंदगी गुज़ारी थी
आज वो जड़ समेत ही मिटटी से उखड गया
जिन हसीं पलों को समेटा था कल जीने को
वक़्त के तूफ़ान में ना जाने कब गुज़र गया
ताउम्र जो बात कहता रहा वो ज़माने भर से
हमने जब वही कहा तो हमसे ही बिफर गया
रात भर जाग कर जिसके दिन को बुनते रहे
हमें ही मालूम नहीं वो कहाँ और किधर गया
सलिल सरोजनई दिल्ली
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