इच्छाओं का बोझ

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इच्छाओं का बोझ था
सर से उतार दिया
मैंने एक ही झटके में
जीवन को आकार दिया

अब इस आकार में
सुख शांति बसती है
मुरझाई सी हंसी थी
अब वो खुलकर हंसती है
चाहनाओं का बोझ था
सर से उतार दिया
मैंने एक ही झटके में
जीवन को आकार दिया

बस इतना सा करना था!
कभी समझा न पहले
मारा मारा फिरता रहा
दुश्मन अहंकार के तले
वासनाओं का बोझ था
सर से उतार दिया
मैंने एक ही झटके में
जीवन को आकार दिया

अब न भूतकाल बचा
नहीं शेष कोई आफ़त है
मैं तो वर्तमान में जीता हूँ
शेष भविष्य तो अनागत है
आशाओं का बोझ था
सर से उतार दिया
मैंने एक ही झटके में
जीवन को आकार दिया

मैं प्रभु का हूँ और प्रभु मेरे हैं
यही सुमिरन की धारा है
मैं गुरु का और गुरु मेरे हैं
यही सार जीवन का सारा है
अपेक्षाओं का बोझ था
सर से उतार दिया
मैंने एक ही झटके में
जीवन को आकार दिया

स्वामी विदेह देव

हरिद्वार

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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