मैंने जब से शिक्षा शुरू की तब से शिक्षा समाप्ति तक जिस साहित्यकार को सर्वाधिक पढ़ा उनका नाम है मुंशी प्रेमचंद।
मुंशी प्रेमचंद्र का असली नाम धनपतराय था। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही वाराणसी में हुआ था। उनकी शिक्षा केंद्रीय विद्यालय वाराणसी में हुई। 1898 में वे मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर स्थानीय विद्यालय में शिक्षक पर पर नियुक्त हो गए। बाद में वे बी.ए. करने के पश्चात शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हो गए । मुंशी प्रेमचंद की रचना दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में हुई प्रवृत्त हुई , बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में लेखन किया।
प्रमुखतया उनकी ख्याति कहानीकार के रूप में हुई । और अपने जीवन काल में वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से भी सम्मानित हुए। प्राप्त जानकारी के अनुसार उन्होंने 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पद आदि की रचना की । उनके प्रमुख उपन्यास कर्मभूमि, निर्मला, गोदान, गबन, अलंकार, प्रेमा, प्रेमाश्रय,रंगभूमि, प्रतिज्ञा आदि हैं। नाटकों में सृष्टि, संग्राम बाल साहित्य दुर्गादास,रामचर्चा आदि। कहानी संग्रह मानसरोवर भाग एक से भाग आठ तक में 300 से अधिक कहानियाँ प्रकाशित हैं। प्रेमचंद जी यथार्थवादी कहानीकार माने जाते हैं। कथाकार के रूप में प्रेमचंद जी अपने जीवनकाल में ही किवदंती बन गए। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण संस्कृति और मनुष्य जीवन की सामाजिक समस्याओं को अपनी कहानियों का विषय बनाया। उनकी कहानियों में पंच परमेश्वर, नमक दरोगा, कफ़न, शतरंज के खिलाड़ी दुनियाँ की अनमोल रत्न रचनायें कही जाती हैं जो कि विचार और अनुभति दोनों स्तर पर पाठकों को आंदोलित करती हैं। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है की उस समय लिखी गई कहानियां आज भी आज के सामाजिक परिवेश पर ख़री उतरती हैं।
‘नमक का दरोगा’ के ये द्रष्टान्त देखिये — “वेतन पूर्णमासी के चंद्रमा के समान है जो अमावस्या तक घटते- घटते बिल्कुल लुप्त हो जाता है। और ऊपरी आमदनी बहता हुआ दरिया है जो सदा भरा रहता है।’
“बेटियाँ तो घास पूस की तरह बढ़ती हैं”
उस ज़माने में उस समय की वर्तमान हालत पर लिखे गए ये द्रष्टान्त आज के युग में भी सार्थक हैं।
इसी प्रकार उनकी कहानी “कफ़न” जो कि आज भी समाज में ख़री उतरती है। “आज भी समाज में कफ़न के कई पात्र देखने को मिल जायेंगे।”
अपनी “ईदगाह” कहानी से उन्होंने एक “बालक की मनःस्थिति का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है” । उनकी “पंच परमेश्वर” कहानी – “पंच के शरीर में परमेश्वर का निवास होता है ।”
“पंच के मुख से परमेश्वर बोलत है।” ऐसे अनेकों द्रष्टान्त हैं जो उनको एक श्रेष्ठ कहानीकार सिद्ध करते हैं। मैंने उनकी जितनी भी कहानी पढ़ी हैं हर कहानी ने मेरे मानस पटल पर अपनी पहचान छोड़ी है। और इसलिये मेरे प्रिय साहित्यिक हस्ताक्षर में मैंने मुन्शी प्रेमचन्द्र जी का ज़िक्र किया। प्रेमचंद जी की मृत्यु तो 8 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में हुई लेकिन वे अपने इस श्रेष्ठतम साहित्य लेखन से युगों – युगों तक अमर रहेंगे। भारतभूमि और पूरी दुनियाँ के अमर कहानीकार मेरे प्रेरणा स्त्रोत कथाकार मुंशी प्रेमचंद जी को मैं शत – शत नमन करता हूँ।
सुरेन्द्र सिंह राजपूत ‘हमसफ़र’
देवास मध्यप्रदेश