प्रकृति को समर्पित दुनियाँ भर में मनाया जाने वाला उत्सव ‘पर्यावरण दिवस’ आज एक वैश्विक मंच के रूप में स्थापित हो चुका है हम देखते हैं कि प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में ‘पर्यावरण’ के घटकों जैसे वृक्षों को पूज्य मानकर उन्हें पूजा जाता है हमारे वेद, पुराण, शास्त्रों में भी जल, वायु, अग्नि को देव मानकर उनकी पूजा की जाती है समुद्र, और नदी हमारे लिए पूजनीय रहें है इनसे मिलकर ही समग्र भूगोल की कल्पना की जा सकती है इनके बिना जीवन की न तो धूप सम्भव है न छाँव की कल्पना, निश्चित ही पूर्वापेक्षा अब पर्यावरण के प्रति जागरूकता अधिक विकसित हुई है फिर चाहे वो विषय समुद्री प्रदूषण को लेकर हो, प्लास्टिक प्रदूषण से संघर्ष हो या ग्लोबल वार्मिग अथवा पेड़ पौधे पशु पक्षी वन्य जीवों से जुड़े विषय, अब ये मुद्दे कहीं न कहीं आम आदमी के मानस पर भी सक्रियता से दस्तक देने लगे है किन्तु यह सक्रियता केवल इतिहास बदलने के लिए हो सकती है पर्यावरण को लेकर वर्तमान संदर्भों में हमें भूगोल बदलने की भी जरूरत है इसके लिए पर्यावरणीय दशाओं, उनकी कार्यशीलता और तकनीकी रूप पर स्थानिक संदर्भ में अध्ययन करने की आवश्यकता है इसकी मुख्य वजह में जलवायु परिवर्तन भी है प्रायः देखा जा रहा है इस दौर में ऋतुओं के मिजाज में भी खासा बदलाव आया है नौतपा जैसा आभास अब गर्मी की प्रारंभिक तपन में ही गहरा रहा है वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण अनावृष्टि और अतिवृष्टी का दुष्चक्र चल रहा है | बेमोसम बारिश और ओलो से हुई बर्बादी भी इसी का एक हिस्सा है| जलवायु परिवर्तन का खतरा कोई आम बात नहीं है |इसे पर्यावरण का असंतुलन ही कहा जायेगा | हमें हमारे भौतिक आवश्यकतों के अतिरेक ने पर्यावरण के सूक्ष्मतम अध्ययन से विमुख किया है हम पर्यावरण पर बात करते है चिंता भी जताते हैं किन्तु जड़ों की नहीं,केवल उन शाखाओं की जो हमें उपर से दिखाई देती है नहीं भूलना चाहिए कि हम मनुष्य अपनी समस्त क्रियाओं से इस पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं इस प्रकार एक जीवधारी और उसके पर्यावरण के बीच अन्योन्याश्रय संबंध भी होता है क्योकि जिस प्रकार मनुष्य के मानसिक असंतुलन से उसका सम्पूर्ण जीवन परिवेश प्रभावित होता है ठीक उसी प्रकार प्रकृति और मनुष्य के अंतर्संबंधों के चलते प्रकृति के असंतुलित होने पर पूरा का पूरा वातावरण न सिर्फ प्रभावित होता है अपितु उसका प्रभाव सदियों तक बना रहता है एक बार इस ओर भी विचार करना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं इसके पीछे मनुष्य जो इस सृष्टि का सबसे बुद्धिमानी प्राणी है वही जिम्मेदार हो ? हमें एक बार थोड़ा पीछे हटकर सोचना चाहिए कि हमारे पूर्वज कितने बुद्धिमान थे जो वे छोटी -छोटी किन्तु गहरी सावधानियाँ प्रकृति के प्रति बरतते थे उन्होंने कभी नदी किनारे मकान नहीं बनाए, बनाई तो सिर्फ पगडण्डीयां, हमने क्या किया सड़के बना डाली और मलबा नदी के किनारे फैलाया, तीर्थ यात्रा को पिकनिक यात्रा समझ के उसे इस्तेमाल कर रहे है |यह प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ ही तो है |कहीं ऐसा तो नहीं कि चन्द मशीनों सुविधाओं का निर्माण कर हम खुद को दुनियाँ का रचयिता मान बैठे है ? जहाँ हमारे पूर्वजों ने देवदार के वृक्ष लगाएं वहीँ वन विभाग ने इमारती लकड़ी के लालच में चीड़ के वृक्ष का विस्तार कर दिया जबकि चीड़ ज्यादा पानी सोखने और एसिड छोड़ने वाला पेड़ है |शायद मानव के इस भ्रम पर प्रकृति भी हास्य करती होगी और पूरा ब्रह्माण्ड व्यंग्य करता होगा यह देखकर कि धरती की रचना अब आधुनिक ब्रह्मा कर रहें है |हमारे इस भ्रम में कहीं यह न हो जाय की न धूप हमारी रहें न छाँव| हमें नहीं भूलना चाहिए की इसी प्रकृति से जीवन चक्र चलता है यह कालजयी है और इसी के स्त्रोत हमें जीवन देते है,हमारे जीवन को पोषित करते है |किन्तु हम मानव अपनी जड़ों को काटकर जाने कौन सी फसल लहलहाने के स्वप्न संजों रहें है |शायद प्रकृति के प्रति इसी आत्मीयता के अभाव ने आज साहित्य से भी प्रकृति को दूर कर दिया हमारे पूर्वज कवि तो अपनी कविताओं में भी प्रकृति को अपने जीवन से जोडकर ही अपनी कविताएँ रचते थे फिर वो तुलसीदास हो जयशंकर प्रसाद हो, केदारनाथ अग्रवाल हो या फिर पृकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पन्त हमारे पुरखे कवियों ने वर्षा की तुलना पर्वत के पंखों तक से की है |जैसा यश वर्षा ऋतु को मिला वैसा अन्य किसी ऋतु को नहीं ये कुछ इस तरह की कविताएँ हुआ करती थी जिन्हें पढ़कर हम स्वयं को प्रकृति के और अधिक निकट महसूस करते थे किन्तु संतुलित वर्षा अब एक सुखद स्वप्न सी बनती जा रही है | जीवन की दौड़ में जीने के मायने हम जो भूल गए है आत्मकेंद्रित होते मानव के जीवन में प्रकृति उसकी रचनाओं में ही नहीं उसके जीवन में भी केवल विषय विमर्श तक सिमित है प्रकृति जो हमारा वास्तविक घर है उसे छोड़कर जाने क्या पाने निकलें है हम| केवल एक बार ठहर कर सोचें की थकन आएगी तो कहाँ रुकेंगे हम,आखिर कैसे सुरक्षित होंगें हम ?क्यों न इस पर्यावरण दिवस पर हम केवल उन्हीं जिम्मेदारियों पर चिंतन करें जिन्हें बेपरवाही से भूल चूके हैं हम |एक बार यह भी सोचें की हम प्रकृति के मध्य तो है किन्तु क्या प्रकृति के साथ है ?इसके मरुस्थलीकरण होने से पहले ही इसे सुरक्षित करना अंतिम विकल्प है,काफी हद तक एक हरित व्यवस्था की मुहीम चलाने की जरूरत है अपने पारिस्थितिक तंत्र के पर्याप्त मूल्यांकन की आवश्यकता भी महसूस होती है यही पर्यावरण के समसामयिक सतत विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है |पर्यावरण की ‘वरीयता’ हम सभी का संकल्प बने शायद तभी पर्याप्त धूप और छांव का आनंद पूर्ण संतुलन के साथ लिया जा सकेगा अन्यथा एक दिन वर्षा हमारे जीवन का एक महास्वप्न बन जाएगी और ‘पानी’ हमारे मन का एक ‘संस्मरण’ बनकर रह जायेगा जिसे पढ़कर ही हमें स्वयं को तृप्त करना होगा |
#प्रो. शोभा जैनपरिचय:– प्रो.शोभा जैन(लेखिका/समीक्षक)इंदौरशिक्षा, साहित्य एवं हिन्दी भाषा से जुड़े विषयों पर स्वतंत्र लेखन |हिन्दी साहित्य की गद्य विधा –समीक्षा,आलेख निबंध,आलोचना एवं शोध पत्र लेखन में विशेष रूप से सक्रिय विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर निरंतर प्रकाशन| साहित्य एवं शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय शोध संगोष्ठीयों एवं कार्यशालाओं में सक्रीय सहभागिता| आईडियल असेट ग्रुप की मेनेजिंग डायरेक्टर के रूप में इन्वेस्टमेंट एवं फाईनेंशियल प्रबंधन(निवेश एवं अर्थ प्रबंधन) एवं प्रशिक्षक के रूप में कार्यानुभव| |शिक्षा विभाग में नई पीढ़ी के लिए उनके कौशल विकास एवं समस्याओं के समाधान हेतु काउंसलर के रूप में पूर्व कार्यानुभव |शैक्षणिक योग्यता –बी.काँम, एम.ए. हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य में पूर्वार्द्ध, पीएच-डी.हिन्दी साहित्य| निजी महाविद्यालय में हिन्दी की प्राध्यापक/अतिथि प्राध्यापक | उद्देश्य: शिक्षा साहित्य एवं हिन्दी भाषा के विकास में प्रयासरत निवास इंदौर (मध्यप्रदेश)