हिंदी के कुँवर, कुँवर नारायण !

0 0
Read Time3 Minute, 48 Second

हिंदी के कुँवर, कुँवर नारायण !

Kunwar_Narayan

“हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !”

शीर्षक ‘कमरे में धूप’ की इन पंक्तियों को जब पहली बार पढ़ा, तब नई कविता की बिंबात्मक क्षमता से चमत्कृत हुआ था।

19 सितंबर, 1927 को फैजाबाद में जन्मे हिंदी के कुँवर, कुँवर नारायण जी की इस कविता का मुझपर प्रभाव यह था कि जैसे नशेड़ी अपना नशा ढूंढता है, मैं इनकी दूसरी कविता ढूंढ रहा था।

फिर, हिंदी के किसी भी दूसरे विद्यार्थी की तरह ‘कोई दूसरा नहीं’ खरीद लाया जिसके लिए उन्हें 1995 में साहित्य अकादमी मिल चुका था। इसके बाद कुँवर नारायण का काव्य संसार मेरे सामने खुलता चला गया ।

बाद में जब इनकी बहुचर्चित कविता दीवारें पढ़ी तो ये पंक्तियाँ मेरे साथ हो लीं :

“अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूँ

कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था

कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है”

बाद में मैंने भी एक कविता ‘दीवार’ लिखी -सर्वथा अलग संदर्भ में, लेकिन शीर्षक दिया ‘दीवार’ ! जब यह एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका में यह प्रकाशित हुई तो मुझे लगा मैं दीवार को मनोवैज्ञानिक धरातल पर ले जाने में सफल रहा हूँ ।
तो, कविता की समझ रखने वाले पर कुँवर नारायण की कविताओं का प्रभाव न पड़े, ऐसा संभव ही नहीं है।

कुँवर नारायण का काव्य संसार बड़ा विपुल है। 15, नवंबर 2017 को लखनऊ में निधन से पूर्व वे साहित्य में इतनी थाती छोड़ गए हैं कि हिंदी के पाठक तीसरा सप्तक के इस कवि को सदा पढ़ते-गुणते रहेंगे !

नई कविता आंदोलन के इस सशक्त हस्ताक्षर ने दशकों माँ शारदा की सेवा की । अपनी कविताओं में मिथक, इतिहास, परंपरा और आधुनिकता का जैसा समन्वयन इन्होंने किया, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

देखा जाए तो जिस बौद्धिक सघनता के साथ कुँवर नारायण ने प्रतिशोध को साधा वह आज के कलमकारों के लिए प्रकाश स्तंभ सदृश है। वे पूरब के थे और पश्चिम के भी।

अगर इनके विशाल साहित्यिक खजाने से मुझे नए साहित्यकारों के लिए कुछ चुनने कहा जाए तो वे हैं: इन दिनों, चक्रव्यूह, आज और आज से पहले , मेरे साक्षात्कार, आत्मजयी और कोई दूसरा नहीं ।

इनकी कविताएं अपने मिज़ाज में प्रयोगधर्मी हैं, उदाहरण के लिए- ‘सृजन के क्षण’, ‘कविता क्या है’, ‘कविता की जरूरत’ और ‘प्यार की भाषाएं’।

2005 का ज्ञानपीठ और 2009 का पदम् भूषण पुरुस्कार इस महान क़लमकार के साहित्यिक अवदान को रेखांकित करता है।

अवतरण दिवस पर मातृभाषा उन्नयन संस्थान की तरफ़ से विनीत स्मरण !

कमलेश कमल,
(साहित्य संपादक)

matruadmin

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

हिंदी देश का वासी हूँ

Wed Sep 19 , 2018
मैं हिंदी देश का वासी हूँ, पर अंग्रेजी भाषी हूँ! जब मद-महफ़िल में होता हूँ, डूड पुकारा जाता हूँ। आधी रात गए जब नाईट पार्टी से घर आता हूँ, सामने वाली खिड़की से चिरकुट पुकारा जाता हूँ। कभी फ़ेसबुक,कभी व्हाट्सएप, कभी यूट्यूब में फिरता हूँ, भोर पहर डॉगी को लेकर […]

संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।